मैं नहीं लिखना चाहूंगा
कभी कोई पोथी
किसी भी विधा में।
ग़र कभी लिखी भी तो
लिखूँगा तुम्हारी कथा
"प्रेमनामा" शीर्षक से।
आवरण पर फोटो
लगा दूंगा उस स्थान की
जहां हुआ था
पहली बार स्नेहिल मिलन।
किताब के अगले दो पन्ने
जो होते है स्वयं के
शब्दों के लिए,पर लिख दूंगा
दो आखरों में तुम्हारा नाम
जिल्द भी मैं ही तैयार करूंगा
संपादन भी मैं ही-
भूमिका किसी वरिष्ठ साहित्यकार से
नहीं लिखवाकर,पांडुलिपियों का थैला
भिजवा दूंगा तुम्हारे पते पर,
विश्वासी डाकिये के साथ
फिर मैं अत्यंत जिज्ञासु
बन फिरता रहूंगा और सोचता रहूंगा कि -
"आखिर कैसे लिखोगी अपनी भूमिका"