लेखक: लावण्या शाह
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असीम अनन्त, व्योम, यही तो मेरी छत है!
समाहित तत्त्व सारे, निर्गुण का स्थायी आवास
हरी भरी धरती, विस्तरित, चतुर्दिक -
यही तो है बिछोना, जो देता मुझे विश्राम !
हर दीशा मेरा आवरण, पवन आभुषण -
हर घर मेरा जहाँ पथ मुड जाता स्वतः मेरा,
पथिक हूँ, हर डग की पदचाप -
विकल मेरा हर श्वास, तुमसे, आश्रय माँगता !