अब जाग गेलूँ, आगू बढ़वय,
मोसकिल में भी खूब्बे पढ़वय।।
बस देख-देख खुल गेलय आँख,
पढला-लिखला से लगय पाँख।
तब लोग बाग जाहे ऊपर,
अनपढ़ जीये तऽ जीये खाक।
पढ़-लिख नयकन सिढ़िया चड़वय।।
ई जान गेलय हे हमरो मन,
सिच्छा से बढ़के नञ कोये धन।
रोसनी देखाबऽ हइ सिच्छा,
जगमग हो जाहइ जन-जीवन;
समता के लड़ाय हम्हूँ लड़वय।।
पाबइते किताब के मंतर,
जंगाल टूट जा हइ तंतर।
फिन कठिन राह भी बनय सुगम,
छोड़य प्रभाव अच्छर-अच्छर;
हम ग्यान से जिनगी के मढ़वय।।
बीतल दिन से ले छुटकारा,
हम मोड देवय जुग के धारा।
साबित कर चुकल कते बहिना,
चमकल बन-बन के ध्रुवतारा;
हम तो नयकी दुनिया गढ़वय।।