तंरगों में पवन के,
युग-अँधेरे में
सिहर कर स्वर सभी थे मौन
जिस क्षण
विश्व कवि की रुक गयी थी श्वास !
होता था नहीं विश्वास
मुख पर था वही ही तेज
जीवन-साधना आभा
नहीं थीं शोक-रेखाएँ,
मनुज-उर भव्यता की
मधु-सरल मुसकान छायी थी।
दिये संसार को जिसने सबल स्वर
मुक्त गीतों का अतुल भंडार
ऐसे गीत जो हैं प्रति निमिष गतिवाह,
करते दूर उर का दाह,
हर निर्जीव तन में रक्त नूतन
कर रहे संचार,
नव-संदेश-वाहक !
कर रहे हर प्राण का उत्थान !
संस्कृत मानवी उत्थान !
1941