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होमीदाजी / सरोज कुमार

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दाजी को शब्दों वाली कविता
नहीं थी पसंद!
वे अपनी कविता सड़कों पर लिखते थे।
शब्दों की जगह होते थे
अपने हकों के लिए जूझते इंसान!
उनकी गजल का
मतला होता था इंकलाब
और मकता, जिंदाबाद!

जिसके पास हौंसला होता है
उसे किसी चीज़ कि कमी
महसूस नहीं होती!
हारने के लिए कभी कुछ नहीं रहा
दाजी के पास!
जीतने के लिए जरूर
बड़े-बड़े क़िले थेः
न्याय के, समानता के, प्यार के!

दाजी को वोट देने वाला
मानो स्वयं को वोट देने जाना था
और जीत के जश्न में
दाजी के आगे इठलाता था!
पैरिन ने दे दिए थे!
अपने गहने उतार कर
पोस्टर, पेम्फ्लेट
और प्रचार के खाते में।

पैरिन और दाजी कि जुगलबंदी
अनोखा थी!
वे बने भी थे
और बनाए भी गए थे
एक दूसरे के लिए!
थकान की धूप में
पैरिन बन जाती थी छाया,
और मुसीबतों कि बरसात में
मज़बूत छाता!

दाजी को हम कभी
भुला नहीं पाएँगे,
जहाँ भी, जब भी दिखेगा
अन्याय
दाजी, काले कोट में याद आएंगे!