धीरे-धीरे जगहें छूट रही हैं,
बढ़ना सिमट आना है वापस--अपने भीतर!
पौधा पत्ती-पत्ती फैलता
बच जाता है बीज-भर,
और अचरज में फैली आँखें
बचती हैं बस बूँद-भर!
छूट रही है पकड़ से
अभिव्यक्ति भी धीरे-धीरे!
किसी कालका-मेल से धड़धड़ाकर
सामने से जाते हैं शब्द निकल!
एक पैर हवा में उठाये,
गठरी ताने
बिल्कुल आवाक खड़े रहते हैं
गंतव्य!