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ढलती रात / महेन्द्र भटनागर

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स्वर्ग का ऐश्वर्य
धरती पर सहज बिखरा हुआ,
आकाश-पथ की चाँदनी की धूल से
निखरा हुआ !

जगमगाती रात
ठहरे पात,
निर्जन में अकेली मूक
जीवन की पहेली-सी
रुकी-सी रात !

अंतर-तृप्ति की छाया
बनी प्रतिमा सलज्जा, मुग्ध सोयी रात
मानों सब गयी अपना कहीं पर हार !
धुँधली-सी गयीं बन गूढ़ रेखाएँ
बतातीं हो गयी हैं पूर्ण इच्छाएँ,
अरी ! शीतल सकुचती रात !
मत कर साधना ऐसी
न हो नव भोर,
सपनों की न टूटे
रजत-राका-रश्मियों की डोर !

री पगली ! वही तो दे सकेगा
शक्ति, प्राणों में नया उत्साह, गति, कंपन !
मचा यों शोर —
हो नव भोर !
1949