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जल-वृष्टि / महेन्द्र भटनागर

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पानी बरसा, पानी बरसा !

देख रहे थे आसमान को
जब प्यासी आँखों से जन-जन,
सिर पर ज्वाला का बोझ लिए
जब साँसें भरते थे तरु-गण,
शांत हुए, जैसे ही टप-टप
पानी बरसा, पानी बरसा !

लरज-लरज कर बिजली चमकी
घुमड़-घुमड़ कर गरजे नव-घन,
भीग गया रे दूर क्षितिज तक
नंगी शुष्क धरा का कण-कण
जगती को नव-जीवन देने
पानी बरसा, पानी बरसा !

इस जल में नूतन जग की
रचना का सफल प्रयास छिपा;
इस जल में त्रास्त मनुजता का
सुन्दर निश्छल मधु-हास छिपा,
नवयुग का नव-संदेश लिए
पानी बरसा, पानी बरसा !
1947