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चौखट / निशा माथुर

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दरवाजे की चौखट पर राह तकती,
वो दो आंखे ...
मन में आंशकाओं के उठते हुये बवंडर,
दिल मायूसी में डूबा, जैसे कोई खंडहर।
किसी भी अनहोनी को कर अस्वीकार
दिमाग जा पहुंचा संभावनाओं के द्वार।
वो हर एक पल का अब जीना मरना,
कब आयेगा उसका वह अपना?
 
दरवाजे की चौखट पर राह तकती,
वो दो पुतलियाँ...
जो भीगी हैं अहसासों की बारिश से,
जो जाग रही हैं ममता की ख्वाहिश से।
अकुलाहट में अपनी पलक पांवङे बिछाये,
प्रतीक्षा की हर आहट पर देवी देवता मनाये।
असमंजस के क्षण-क्षण को गिनता वक्त होगा,
जाने किस हाल में उसका लाडला होगा?
 
दरवाजे की चौखट पर राह तकती,
वो दो मासूम नजरें...
वो तुतलाती-सी बोली, भाव नयन में थमे-थमे से,
वो सीने से उठता ज्वार, खङे पांव जमे-जमे से।
छाया देता कल्पवृक्ष, गोदी का आश्वासित बचपन,
जीवट था उसका नायक, सवाल पूछता भोला मन।
उसके कन्धों पर चढकर चांद को छूने जाना है,
बता दे मेरी मां, मेरे जीवनदाता को कब आना है?
 
दरवाजे की चौखट पर राह तकती,
वो दो निगाहें ...
अपनी सिलवटों का दर्द बयाँ कर रही है,
हर लम्हा पदचाप की सुधियाँ तलाश रही हैं
कलेजा हथेली पर, सांसे घूमी फिरी सी,
तारीखें मौन पसराये, आशाओं में झुरझुरी सी,
सूखे आंसू और दिल हाहाकार कर रोता है,
जब तिरगें में लिपटा किसी जवान का जनाजा होता है!