Last modified on 1 फ़रवरी 2020, at 16:15

सफेद साड़ी / निशा माथुर

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:15, 1 फ़रवरी 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अवसान के समय स्वरमय, पहना दिया सफेद कफन
सभला दी गयी बंदिशो और प्रथाओं की ढेरों चाबियाँ
जिस सिन्दूरी रिश्ते को वह मनुहार से जीती आयी थी
वही निर्जीव नसीब में लिख गया जमाने की रूसवाईयाँ।

उसके माथे की लाली फिर धो दी समाज के ठेकेदारों ने
आंगन में लाल चूङियाँ भी तोङ दी वज्रकठोर रिश्तेनातों ने।
कानून बनाकर मौलिक अधिकारों पर संविधान लागू हो गये
वैधव्य का वास्ता देकरसमाजी रंगो की वसीयत लूट ले गये।

सरहदें तय कर दी गयी अब घर की देहरी, चौखट तक की
उसकी जागीर से छीन ली गयी मुस्कराहट उसके होठों की।
स्पन्दित आखें नमक उतर आया गंगाजल से उसे शूद्ध कराया
बटवारें में ऐलान सांसों को गिन-गिन कर लेने का आया।

निरामयता समपर्ण से जुङे रिश्ते तो उसे निभाने ही होंगे
शून्य सृष्टि-सी प्रकृति संग विरक्ति के नियम अपनाने होंगे
बिछोह का दंश रोज छलेगा तपस्या ही अब जीवन होगा।
तन पर सफेद साङी, सूनी कलाई और खामोश मातम होगा।