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मुफ़लिसी / निशा माथुर

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कितनी खामोश होती है मुफलिसी अपनी जुबान में!
क्यूं कर कोई नजर देख नहीं पाती, इसे इस जहान में
कितनी आह, कितना दर्द, कितनी भूख दिखाई देती है,
सब मसरूफ है खुद में, बदली-सी निगाहें दिखाई देती है।
कहीं तो रोती है जवानी, कहीं बिखरता आँख का काजल,
उतने ही पैबंद लिये तन को छुपाता किसी माँ का आंचल।
 
कितनी खामोश है मुफलिसी क्यूं लफजों में बंया नहीं होती है!
मासूम-सी अबोधें कन्यायें फिर कोड़ी-कोड़ी के लिये बिकती हैं
कितनी ही बहनों की डोली, फिर सपने में भी नहीं सजती है।
असहाय कमजोर बदन को लेकर जब कोई बाप यूं सुलगता है
मजबूर ख्हाहिशो का धुआं छोङते कोने-कोने में चिलम पीता है।
 
कितनी खामोश है मुफलिसी अश्कों से छलकती दिखती नहीं!
कोई धङकन कोई सांस कोई आत्मा रोजाना फिर मरती वहीं
जिन्दगी का आलम ये है कि तब वह घुट-घुट के सिसकती है
बरसात आँधी तूफान में जब किसी गरीब की छत टपकती है।
बिकती है भूख, बिकता ईमान, बिकता है फिर बदन नशीला
यही है खामोश मुफलिसी जहाँ गरीबी में भी होता, आटा गीला।