मेरा घर
आज भी है इंतज़ार में तुम्हारे
आईना,
सोलह सिंगार किये
तलाश रहा है कब से
अपनी छवि को
चौखट, चौंक उठती है
हर आहट पर
दरवाज़ा, पीटता रहता है
खुद ही अपना सीना
खिड़की, पर्दे की झिलमिल ओट से
निहारती रहती है गली को प्रतिदिन
और दीवारों ने तो रो रो कर
उभार लिए हैं अपने चेहरों पे
दरारों के कई निशान
रौशनदान, सुबह की नर्म किरणों के साथ
ढूंढता है तुम्हारी खुशबू
छत , आसमान सी अपनी बांहें फैलाये
आतुर है भरने को तुम्हे
आ जाओ प्रिय!
यह घर भी उदास है तुम बिन
अब और कितना इंतज़ार
एक दस्तक दो न...