मेरा मन भी
ना जाने
बुनता है
कितने ही ख्वाब
तुम्हारे साथ...
कभी तुम्हारी ऊँगलियों को
स्पर्श करते
करता है चहलकदमी
ओस से भीगी नर्म घास पर..
तो कभी लाॅन में बैठ
करता है मीठी बातें
चाय की चुस्कियों के साथ..
कभी दूर पर्वत पे
चला जाता है
हाथों में हाथ डाले
और छू लेता है
प्यार का क्षितिज..
तो कभी
सिर पे पल्लू लिए
प्रेम विश्वास के
अटूट धागों को
मजबूत करने
चढ़ जाता है
श्रद्धा की कई सीढ़ियाँ..
कभी नदी किनारे
तुम्हारे काँधे पे
सिर रखकर
निहारता रहता है
किनारों में सिमटी
कलकल बहती नदी को...
और कभी,
रात की गहराईयों में
बिस्तर पर करवट लेते
समा जाता है एकदम से
तुम्हारी बाँहों में...
मेरा मन...!!