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ठूंठ / राखी सिंह

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समृद्ध हो सकता था
किसी विशाल वृक्ष समान
लदे रह सकते थे मीठे फल उसपर
पंक्षियों के कलरव से
गुंजायमान रहता पवन
कई नए पौध पनपते, बीज से उसके

परन्तु आह री नियति!
या प्रकृति उसकी
पितृ अर्पण को न होगा वंश कोई

ऐंठ कर टूट गया
अहं में श्रापित ठूंठ वह!