Last modified on 16 मार्च 2020, at 23:26

ठहर जाना / प्रवीन अग्रहरि

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:26, 16 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रवीन अग्रहरि |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कि दौड़ते वक़्त की पगडंडियों में
अटक रहे हो कभी
या ख़्वाबों के तिलिस्म मे
भटक रहे हो कभी

जब खामोश बैठ कर रुई के फाहों को रगड़ने का मन करे
जो तुम्हें मना ले उससे बेवजह बिगड़ने का मन करे
जब हंथेली पर ठुड्डी टिका कर कुछ सोच रहे हो तुम
या फिर आँखों के कोनों को उंगली से कोंच रहे हो तुम
जब मंजिल नजर ना आ रही हो और फिर भी चलना ज़रूरी लगे
जब गुस्ताख़ उम्मीदों की सख्त हड्डियों का गलना ज़रूरी लगे

तब एक बाज़ की तरह किसी बरगद की फुनगी पर बैठ जाना,
आँख मूंदना, लंबी सांस लेना और ठहर जाना।

ठहर जाना यूं के जैसे बाँध के सिरों में पानी ठहर जाता है एक क्षण को
चेतना और भौतिकी का द्वंद है रोक दो इस रण को

क्यूँ कि तुम जल हो तुम्हें अथक बहना है
वही तुम्हारा ध्येय है
लेकिन निरंकुश बहोगे तो बाढ़ लाओगे
किन्तु मृदुल बहना, शीतल रहना अजेय है

अतः दिमाग कि गरम नशों में सुकून कि ठंडी बौछार करना... सिहर जाना...
आँख मूंदना, लंबी सांस लेना और ठहर जाना।