तीसरी आँख / प्रांजलि अवस्थी

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प्रेम प्रगाढ़ होने में वक्त लगता है
ये सोचकर ही मैंने समय की ओर
उस वक्त ध्यान नहीं दिया
जब मैं प्रेमिका बनी
हाथ में पहनी हुई घड़ी भी नहीं जान सकी
कब सुबह हुई और कब रात
प्रेम में जागता हुआ मन भी सोया हुआ ही रहता है
इसलिए मुझे अपने प्रेम में पड़ने
और होने की अवधि ज्ञात नहीं

मैंने कभी प्रेम की नापज़ोख नहीं की
कि हथेलियों में कितना बाकी है
या कितना मेरे रोम छिद्रों को स्पर्श से रोमांचित कर सका
कितना उसने मुझसे छुपा कर
 किन्हीं और प्रेमिकाओं का उधार चुकता किया
या निर्वाण तक हम कितना बचाकर ले जा सकते हैं
मैंने तो बस प्रेम के हर बड़े-छोटे घूँट को
गरदन नीली पड़ने तक रोक कर रखा

मैंने कभी ध्यान नहीं दिया कि
तमाम शंकायें, दुराग्रह और बैचेनियाँ
घड़कनों के साथ
कब लय बद्ध हुये और कब लय मुक्त
उनके शोर को मेरा मौन चुभता रहा
इसलिए मैंने स्वीकार किया
शब्दों के साथ बेसुरा होना
और मैं प्रेमासिक्त स्वरों के साथ निमग्न डूबती रही

मैंने नहीं चाहा कि
प्रेम खूँटी पर लटके कोट की तरह सिर झुका कर
 जब मैं चाहूँ मेरी बाहों में झूल जाये
इस आलिंगन में मोहपाश हमारी साँसों को बींध दे
ताकि ये सिद्ध हो कि वह शरीर है और मैं आत्मा
नहीं चाहिए था मुझे
गर्म या ठण्डी साँसों का भार
मैंने हवा कि तरह हल्का रहना पसंद किया

जब प्रेम नहीं होगा
तब भी नहीं चाहूँगी कि दरवाजों के कान बज उठें
फिर फिर वह कोई दस्तक सुनें
या मैं विरही रचनाओं का आतिथ्य स्वीकार करूँ

मैंनें प्रेम को काँच की आँख से देखा
प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य की तरह सराहा
महसूस किया कि
प्रेम से माथे पर दिया गया चुम्बन
प्रेमिका कि तीसरी आँख की तरह उभर आया है

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