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जननी / मनीष मूंदड़ा

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मैं जन्म देती हूँ
मैं जन्म देती आ रही हूँ
सदैव
खुशनुमा सपनों को
नन्हीं किलकारियों को
मैं सृजनता का प्रतीक बनी

मैं मनुष्यता का प्रतीक बनी
कभी माँ बनी
कभी बहन बनी
तो कभी ममत्व की देवी बनी

सभी कुछ तो दिया मैंने
सभी कुछ तो किया मैंने
पर बदले में मुझे क्या मिला
मेरी देह का भक्षण
मेरी आत्मा का क्रंदन
मैं छली गयी
मैं जलाई गयी
बेबस-सी मैं
बहुत रुलाई गयी
लज्जित, भक्षित, बिखरी
अब मेरी काया
 
बिखरे सपनों को समेटे
पथराई आँखों को मुँदे
बस एक इंतजार में हूँ मैं
इंतजार भी जाने किसका?
शायद जीने का या फिर
हमेशा हमेशा के लिए मर जाने का।