Last modified on 20 मार्च 2020, at 23:40

उलझनें / मनीष मूंदड़ा

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 20 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीष मूंदड़ा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उलझने इतनी के सुलझते सुलझाते हाथ छूट जाएँगे
ना राहें रहेंगी
ना रहेंगे रहगुजर
दिल का आशियाँ ख़ाक हो जाएगा
कदम थक जाएँगे
दिल के जोश की चिंगरियाँ ठंडी पड़ जाएँगी
थकी आँखें फिर ना खुलेगी कभी
सूख जाएँगे अश्क़, धुल जाएँगे सारे संजोये सपने
मिट जाएगी ये हस्ती
रह जाएगा एक बुत बन कर यह जिस्म
सिफऱ् ताबूत होगा उठाने को
ना कोई गम, ना मरहम
साँसे बंद, आँखें बंद
जि़ंदगी की वह सारी जद्दोजहद बंद
शायद तब भी रहेंगी अजर
उनसुलझी वह सारी उलझनें
मेरी क़ब्र पर साफ नजर आएँगी
बनकर वह दरारें
सूखे बिखरे पत्तों के बीच...