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नाजुक मन / मनीष मूंदड़ा

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इन दिनों मेरा मन फिर घिर गया है
डर के घुमड़ते बादलों के बीच
ठीक वैसे ही जैसे
कभी मेरा हवाई जहाज घिर जाता है
ऊपर आसमान में बादलों के बवंडर में
हिचकोले खाता
नीचे जमीन पर जा गिरने की शक्ल बनाता

दर्द और डर से दोस्ती है
मेरी सवेंदनशीलता कि हदों को धकेलते
कभी ये दोनों मुझे ऊपर आसमान में उड़ा ले जाते हैं
तो कभी गुटबंदी कर
आसमान में बादलों से
नीचे गिराने की धमकी दे डालते हैं

दर्द और डर की इस घेरेबंदी से
बाहर निकलना चाहता हूँ
अपनी संवेदनशीलता को अब
लगाम देना चाहता हूँ
मुझे ना कहीं दिल लगाना है
और ना दिल पर लगाना है
दर्द से तो शायद छुटकारा ना मिले
इस सफ़र में
पर मेरे डर को
और मेरे संवेदनशील मन को
दूर बहुत दूर, कहीं छुपाना है