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उन्मुक्त उड़ान / मनीष मूंदड़ा

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मेरा मन अब सीमित संसार में नहीं रह सकता
उसे उडने के लिए एक विस्तृत व्योम चाहिये
एक खुला आसमान
जहाँ का फैलाव असीमित हो
बिलकुल अनंत

नहीं चाहिए मानसिक जड़ता
वो शिथिलता
चाहता हैं मन बने एक पंछी
खुले गगन में उड़ता
या फिर बन बंजारा
सरहदों के मायने ख़त्म करता
नई डगर, नए शहर
अनुभूति करता
अनोखी, अनूठी, नयी, एक दम निराली।