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अटूट बँधन / संतोष श्रीवास्तव

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साथ ले जाऊंगी
निब भर वतन की मिट्टी
नोक भर स्वर्णाक्षर

यहीं छूट जाएँगे
कागज पत्तर
जिनके बीच खोई रही
उम्र भर

समर्पित होती रही हिन्दी
मेरी हर अनगढ़ सोच पर
मेरी हर बेतरतीब ज़िद पर

मेरे एकांत में
पहुँचाती रही मुझ तक
पूरी की पूरी दुनिया
कभी टुकड़ा टुकड़ा
कभी एकमुश्त
कुछ भी तो नहीं छोड़ा उसने
जिसे मैं जान नहीं पाई

जानती हूँ दुनिया को
अलविदा कहने के बाद भी
वह रचती रहेगी
अपने वर्णाक्षरों से
मेरे लिए प्रार्थनाएँ
वहाँ भी