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परछाई और अंधेरा / संतोष श्रीवास्तव

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मैं चलती हूँ
साथ-साथ चलती है परछाई मेरी
मैंने पहले कभी नहीं देखी थी
परछाईयाँ जो सूरज में रहती हैं

सड़क का, जंगल का हर दरख्त
सूरज की ओर पीठ फेरता है
फिर नीचे धरती की ओर देखता है
देखता है अपनी ही परछाईं
अपनी ही शाखों की
नन्ही पत्तियों की बुनावट
अपने ही फूलों का रंग हीन छाया रूप

जडे थामी रहती हैं दरख्त का
सहमापन, भय, कातरता
अपने से अलगाव का यह कालापन
यह क्या उसी में समाया था?

हर चमकने वाली चीज के तले
यह कालापन लेटा है
सारा का सारा जो सूरज में समाया था
उतर आया है परछाई बन धरती पर

अंधेरे के प्याले चारों ओर छलके पड़े हैं
हवा में कोमल नशा है, उत्तेजना है
सीप का नन्हा दिल थरथराता है
मोती बन जाता है अपने में सिमटकर

जंगली फूल अपने पराग कण बिखराते है
और सर्जन होता है एक खटमिट्ठे फल का
सब कुछ अंधेरे में
अंधेरे में नशा है, पीड़ा है
प्यार करने का दर्द है
सृजन के लिए सिर्फ़ एक क्षण
और पीडा अनंत