पार्क की बैंच पर
अमलतास के झरे फूलों को
किनारे झटककर
बैठ जाता है बूढा
दूर कचरे के डिब्बे को खाली करती
कचरा बीनने वाली बाला
उसके इशारे पर बैंच तक आती है
बूढा हाथ पकडता है
बाला कि आँखों में
सवाल ही सवाल हैं
सब भस्म हो जाते हैं
बूढे की हवस की अग्नि में
बूढा अपनी मर्दानगी आजमाता है
बाला के शरीर को
दबोचकर, टटोलकर, मसलकर
बाला का कच्चा शरीर तडप उठता है
आँखों में समन्दर उमड आता है
जो भूख की कगारों से टकराता है
भूख, बूढे की हवस की
भूख, बाला के पेट की
जो दब जाती है
बूढे की जेब के वज़न से
कितनी लाचार है भूख
लेकिन कितनी कठोर भी
जो खा जाती है
आँखों के सपने