अडिग हिमालय सदृश पिता हैं,
मैं उनसे निकली सरिता हूँ
जिसे यत्न से लिखा उन्होंने
मैं उनकी पहली कविता हूँ
जुड़-जुड़ कई इकाई नित वे
मुझे सैकड़ा करते आये
मेरा दृढ़ विश्वास पिता हैं
मुझमें संबल भरते आये
प्रथम स्लेट पर आड़ी तिरछी
मैंने जो खींची रेखायें
हाथ पकड़ उन रेखाओं में
स्वर्णिम अक्षर गढ़ते आये
मेरा तो ब्रह्माण्ड पिता हैं
मैं उनकी नन्ही सविता हूँ
मुझको जीवन दिया उन्होंने
जीने का हर हुनर सिखाया
चलना, गिरकर पुन: सँभलना
पंखों को आकाश दिलाया
उनसे ही है मेरी गरिमा,
उनकी गरिमा मैं हूँ जग में
हार, निराशा, चिंता, बाधा,
संकट में धीरज बँधवाया
वे मेरे आदर्श बने हैं
मैं उनकी भविता, शुचिता हूँ
डाँट कभी फटकार कभी वे
नेह भरी पुचकार बने हैं
खेल-खिलौने, रंग, मिठाई
हर दिन वे त्योहार बने हैं
जीवन के प्रत्येक समर में
हँसकर लड़ना मुझे सिखाते
मेरी ढाल, कवच वे ही हैं
पिता शक्ति तलवार बने हैं
पाकर ऐसे पिता जगत में
मुझे गर्व है मैं दुहिता हूँ