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जलते रहना / महेन्द्र भटनागर

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तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !
जब तक प्राची में ऊषा की किरणें
बिखरा जाएँ नव-आलोक तिमिर में,
विहगों की पाँतें उड़ने लग जाएँ
इस उज्ज्वल खिलते सूने अम्बर में,
    तब तक तुम रह-रह कर जलते रहना !
    तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !

जैसे पानी के आने से पहले
दिन की तेज़ चमक धुँधली पड़ जाती,
वेग पवन के आते स्वर सर-सर कर
फिर भू सुख जीवन शीतलता पाती,
    गति ले वैसी ही तुम जलते रहना !
    तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !