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बहिर्गमन / चन्दन सिंह

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पोटलियाँ सिर पर कन्धों पर
मिमियाती बकरियाँ और अचरज भरे शिशु लिए
पता नहीं कहाँ जा रहे हैं ये
किस दिशा ने थाम रखी हैं इनकी अँगुलियाँ
कुछ पता नहीं

कितना सरल है इनका बेघर हो जाना
आग की कोई चिंगारी
कोई ख़ाकी वर्दी
या शहर के शृंगार के लिए
कंघी की तरह फेरा गया कोई बुलडोजर
पल भर में कर सकता है इन्हें बेघर

इस बार
शहर में आई अप्रत्याशित बाढ़ ने
किया यह काम

इनके घरों के पैरों के नाखूनों में
सुइयों की तरह चुभा था जल
पीड़ा में खुले मुँह की तरह खुले थे
इनके घरों के द्वार
हड़बड़ाए हुए बाहर आए थे ये
किसी कराह की तरह

ये जा रहे हैं
पाँवों से अदृश्य ज़मीन को टटोलते
ये जा रहे हैं जैसे इसी तरह चलते -चलते
एक दिन पृथ्वी के छोर पर पहुँच
अतल में गिर जाएँगे

धीरे -धीरे हो जाते हैं ये
दृश्य से ओझल
बची रह जाती हैं सिर्फ़
इनकी देह से फूटी लहरें
अनगिनत चीज़ों से टकराती हैं जो
करती हैं चोट
लगातार...लगातार...