प्रेम की बहुत छोटी बूंद का विस्तार है
आस्था
जो नहीं मिलती है बाज़ारों में
छीना भी नहीं जा सकता जिसे
प्राथना पर किसने पाया है इसे?
'आस्था'
प्रेम का गाढ़ा रंग है
यह जब चढ़ जाता है
'मनुज' पर तब वह
'देव' होने की प्रक्रिया में बढ़ जाता है।
'देव'
जो भावना-स्नेह-विश्वाश-समर्पण
के सतम्भों पर आश्रित है
और
सबके लिए ज़रूरी है आस्था कि जमीन।