निकल पड़ी
आँखों की जोड़ियाँ
चुम्बक के क्षण कहीं बिखेरने l
पांव हुए
स्वयंवरी निमंत्रण,
अहम हुआ
शिव के धनु-सा टिका;
सोचों में घूमने लगी कहीं
जनकपुरी वाली
वह वाटिका;
निकल पड़े
मधुऋतु के लालची
गन्धाकुल जोड़ों को हेरने l
बदल गईं
सारी दिनचर्यायें
बन्द हुईं बोध भरी पुस्तकें,
सपनों का सीधा चिठ्ठीरसा,
देने लग गया
रोज़ दस्तकें;
हमको
फिर कर दिया निकम्मा
ग़ालिब के
बहुचर्चित शेर ने l