Last modified on 28 अप्रैल 2020, at 02:05

मर्माहत है / केदारनाथ अग्रवाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:05, 28 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मर्माहत है
       प्रकृति
     बिगड़ी राजनीति से ।

उखड़े पड़े हैं
परार्थी पेड़,
सूरज — 
       चान्द — 
              सितारों का
मुँह जोहते।

इंसान
अब फिर रोपते हैं
अपने और
        दूसरों को
एक समान ।

इंसान
अब फिर खोलते हैं — 
विसर्जन की जगह — 
सर्जन के — 
            नयन
अपने और दूसरों के ।



12 सितम्बर 1978
(बान्दा में आई भयंकर बाढ़ से प्रेरित)