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आकाश स्थिर / अजित कुमार

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आकाश स्थिर

और सब अस्थिर मगर आकाश सुस्थिर है । अचिर सब है, शून्य का, पर, भाव यह चिर है । नभ असीम, अपार का वैभव अदृष्ट, अमाप; मनुज है ऊँचा बहुत, पर यहाँ नतशिर है ।


नींद में डूबे योद्धा सुरक्षित हैं

कौंधती उधर किरनें लड़ने को आती हैं ।

     हम तो अप्रस्तुत हैं ।

डूबे हैं नींद में, खोए हैं स्वप्न में, चेतन से परे ये हम लीन हैं अचेतन में ।

    हम तो अप्रस्तुत हैं,
    इसलिए सुरक्षित हैं ।

आख़िर हमसे क्या लेगा उजाला ? आख़िर क्या कर लेंगी किरनें हमारा ? उनके पैने-तीखे तीर सभी व्यर्थ हैं । होएँ हम किरणों से भले ही अपरिचित पर ज्ञात है हमें तो—

   वे गन्दी हैं, नीच और घृणित और कुत्सित है,
   रखती अपेक्षा हैं नींद तोड़ने की वे ।
   दंभ-मात्र ही है यह ।


जाओ अनुचरो, अरे निशि के अनुचरो । कहो— नहीं है अप्रस्तुत हम । सज्जित हैं, रक्षित हैं, पालित हैं

     --सुप्ति के कवच में ।

यह राज्य हमारा है । किरणों के चापों पर ध्यान नहीं देंगे हम

   --स्वप्नों के अभयद कुंडलों से अलंकृत हैं । …

कितना ही कहो हमें—‘सूर्यपुत्र । सूर्यपुत्र । उसका पितृत्व यहाँ कौन स्वीकारता । तुम्हीं हो असत्य-पक्ष, तुम्हीं दस्यु, अन्यायी । धर्मयुद्ध को हम धर्मयुद्ध नहीं मानते ।

हम तो हैं वीर कर्ण । वीर कर्ण । --मूर्ख नहीं । दान नहीं देंगे हम । कवच और कुंडल हम कभी नहीं त्यागेंगे— क्या मारे जाएँगे ??

हम हैं कूटज्ञ कर्ण, धूर्त कर्ण, चतुर कर्ण : दानी नहीं । और यों सुरक्षित हैं उसके उजाले से संभव है, जिससे हम कभी कहीं जन्मे हों ।


आभार-स्वीकार


‘दर्द’ तुमने कहा जिसको और यों दुखती हुई रग जान ली मैंने अभी तक सहा जिसको ।

    उसीको-

हाँ, छिपाने के लिये उसको गीत गाये थे, अधूरे और पूरे गीत गाये थे ।

जान ही जब लिया तुमने शेष और भला बचा क्या । दर्द के अतिरिक्त हमने सहा याकि रचा भला क्या ।

   कहीं कुछ भी नहीं :
   केवल प्यास, केवल आग ।
   धब्बे, चिन्ह, बेबस दाग

यही थे- जिनको बहाने के लिये आँसू छिपाये थे ।

तुम्हींने यह भी कहा था-

   ‘मिटाने पर मिट न जाये
   दर्द यह ऐसा नहीं है ।
   शर्त लेकिन एक है-
   उस दर्द में मत रमो ।
   देखो।
   पाल खोलो, उठाओ लंगर,
   चलो-
   दुखती हुई रग के सदृश यह द्वीप त्यागो ।‘

तुम्हींने हमसे कहा था-

   ‘अरे, जागो ।‘

और उस कहने तथा खुद भी बहुत सहने के कारन मुक्ति की जब घड़ी आई-

   स्वत: बन्दी बना था जिस द्वीप में
   उससे विलग हो, पाल खोले
   मुक्त नाविक ने
   उधर … उस द्वीप को जाती लहर पर

पुष्प अंजलि से बहाये थे ।

आज वह सब व्यक्त है जिसको छिपाने के लिये … छिपा देने के लिये कुल गीत गाये थे । आज सचमुच मुक्त है जिसको बहाने के लिये … बहा देने के लिये आँसू छिपाये थे । आज तो वह त्यक्त है वह दर्द भी : वह द्वीप भी … वही जिस तक पुष्प अंजलि से बहाये थे ।


उजड़े मेले में

कुछ तो वह अजब तमाशा था कुछ हम भी थे ऐसे … रह गये देखते, और जान ही सके नहीं- कब गुज़र गया सब खत्म हुआ कैसे ॥

जब चेत हुआ तो क्या देखा

   कुछ बिखरे-बिखराये कागज़
   कुछ टूटे-फूटे पात्र पड़े ।
   सारा मेला है उजड़ चुका,
   बस, एक अकेले हमीं खड़े ।
   जिस जगह बड़ा सा घेरा था,
   केवल कुछ गड्ढे शेष रहे ।
   सुलगती लकड़ियां, राख और
   मैले पन्ने, उतरे छिलके :

जो यही पूछते-से लगत-

   ‘रे, कौन यहां पर आया था ?
   यह किसका रैन-बसेरा था ?

यह उजड़ा मेला

   उखड़े हुए नशे जैसा,
   सारे मोहक आकारों के सौ-सौ टुकड़े ।
   सब आकर्षक ध्वनियां- अब केवल ‘भाँय-भाँय’ ।
   रंगों के बदले-फीके,मटमैले धब्बे ।

वह एक तमाशा था …

लेकिन

   उलझी-सुलझी रस्सियां,
   बांस गांठोंवाले …
   कुम्हलाये हुए फूल-पत्ते…
   सारे का सारा आसपास
   जो दिखता है बेहद उदास :
   यह भी तो एक तमाशा है ।

उजड़े-बिखरे, टूटे-फूटे की भी तो कोई भाषा है।

   कीचड़ से भरी तलैया का गँदला पानी

चुपके-चुपके कहता-सा है— ‘अधजली घास हरियाएगी…

गँदले पानी को थपकी देती हुई हवा कुछ राख उड़ाकर ले जाती , कुछ धूल उड़ाकर ले आती: अब तिरछे-सीधे चरण-चिन्ह, सब गहरे,ठहरे, बड़े चिन्ह धीरे-धीरे मिट जाएँगे । लगने दो मेला और कहीं ।



संक्रमण

चलते थे जिनपर वे सड़कें भी मुड़-तुड़ कर खतम हो गई थी, । सब आवाजें कभी यहाँ, कभी वहाँ –थोड़ी या बहुत देर— बोल : सो गई थीं ।

दोस्त सुबह-शाम, रात-रात भर बातें कर: चुप थे, अब रीते थे । और अधिक मादकता, आकुलता, विह्ललता जगा नहीं पाते थे दिन वे— जो बीते थे।

हर क्षण जो बढती थी वही उम्र कहीं, किसी जगह रुक गई थी, और रात— पहाड़ी पर : कुछ घंटों के खातिर ? नहीं— सदा-सर्वदा के लिए झुक गई थी ।

पेड़ों-पौधों-फूलों का उगना बन्द था ,

पंचम स्वर तक पहुँचा हुआ गीत मन्द था।

बहुत तेज़ गति से बहनेवाली धारा अब वर्षा की नदी-सदृश रेती में खोई थी । फ़सल : कट-कटा कर, सब खतम हो चुकी थी, जो साधों से बोई थी ।

वह ठहरी-ठहरी वय । निर्मम जड़ता की जय । बहरी स्थिरता का भय्।

लहरों-काँटों-चहारदीवारों : अवरोधों-कुंठा-सीमा-भारों : का दुर्जर घेरा था ।

यह था : जो मेरा था । इसीलिए घेरा तोड़ा मैंने, जो ‘मेरा’ था : वह छोड़ा मैंने ।

नई धवलगात रात , नवल ज्योति-स्नात प्रात, जाग्रत जीवन, कलरव, नए जगत, नव अनुभव , भिन्न दृश्य, पथ, चित्रों, स्नेही-निश्छ्ल मित्रों के लिए प्रतीक्षा की । इनसे फिर दीक्षा ली ।



वर्ष नया

कुछ देर अजब पानी बरसा । बिजली तड़पी, कौंधा लपका …

   फिर घुटा-घुटा सा, घिरा-घिरा
   हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा ।

बादल जब पानी बरसाये तो दिखते हैं जो, वे सारे के सारे दृश्य नज़र आये ।

   छप-छप,लप-लप,
   टिप-टिप, दिप-दिप,- 
   ये भी क्या ध्वनियां होती हैं ॥

सड़कों पर जमा हुए पानी में यहां-वहां बिजली के बल्बों की रोशनियां झांक-झांक सौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं।

यह बहुत देर तक हुआ किया …

फिर चुपके से मौसम बदला
   तब धीरे से सबने देखा- 

हर चीज़ धुली, हर बात खुली सी लगती है जैसे ही पानी निकल गया ।

   यह जो आया है वर्ष नया-

वह इसी तरह से खुला हुआ , वह इसी तरह का धुला हुआ बनकर छाये सबके मन में , लहराये सबके जीवन में ।

दे सकते हो ? --दो यही दुआ ।