सिफ़लिस के रोगी की नाक की तरह
पड़ी हुई थी सड़क !
काम-लिप्सा की लार थी नदी ।
अन्तिम पत्ते उतारकर
नंगे हो गए थे जून में उद्यान ।
मैं निकल आया चौराहे की तरफ़
विग की तरह सिर पर पहने झुलसा हुआ मुहल्ला ।
डरने लगे हैं लोग — मेरे मुँह में
अनचबी चीख़ हिला रही है टाँगें ।
लेकिन मुझपर कोई काबू नहीं पा सकता
न ही कर सकता है कोई निन्दा मेरी,
पैगम्बर के से मेरे पाँवों पर बरसाएँगे फूल
अपनी नाक खोए सभी लोग,
जानते हैं : मैं हूँ तुम्हारा — कवि ।
शराबख़ाने की तरह डरावनी है तुम्हारी कचहरी,
जलती हुई इमारत के बीच से
पवित्र चित्रों की तरह उठा ले जाएँगी मुझे वेश्याएँ
और करेंगी पेश मुझे अपनी निर्दोषता के सबूत में
और रो पड़ेगा ख़ुदा मेरी किताब पर ।
शब्दों की जगह
ढेले की तरह चिपकी होंगी माँसपेशियाँ,
बग़ल में दबाए हुए मेरी कविताएँ
ख़ुदा भागेगा आकाश में
और सुनाएगा अपने परिचितों को उन्हें ।
मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह