Last modified on 12 मई 2020, at 23:15

लहूलुहान मानवता / नीरज नीर

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:15, 12 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीरज नीर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सहिष्णुता के सबसे बड़े पैरोकार
डाल देते हैं नमक
अपने विरोधियों की लाशों पर।
चमक उठती हैं उनकी आँखे
जब जंगल के भीतर
उल्टे लटके चमगादड़
करते हैं रातों को शिकार
और धू-धू कर जल उठती है
सखुआ की हरी पत्तियाँ
पीपल पर चीखने लगते हैं प्रेत
निष्कपटता कि नदी सुख जाती है
और जंगल विलाप कर उठता है।

और जो असहिष्णु हैं
अपने काम को देते हैं
सरंजाम
बीच चौराहे पर
ताकि सनद रहे ...
धर्म को बेचकर
भर लेते हैं अपनी तिजोरियाँ
और करते फिरते हैं झण्डाबरदारी
धर्म की।

छल प्रपंच और सुविधा के अनुसार रचे गए
इन छद्म विचारों के खुरदरे पाटों के बीच
जो पीसती है
वह होती है मानवता
जो माँगती फिरती है भीख
मंदिर, मस्जिद, गिरिजा के चौखटों पर
और लहूलुहान नजर आती है
लाल झंडे के नीचे।
भेड़ियों के झगड़े में
हमेशा नुकसान में रहते हैं
हिरण के छौने ही।