कि जैसे उम्र एक वाकिया हो
और नींद कोई मुगालता
दर-ओ-दीवार में
उग आये हैं दरख्त कई
धुंध घेरे रहती है
शाम-ओ-शहर मेरे
किसी फरियादी की तरह
मिला हूँ ख़ुद से
सच है कि
अपनी ख्वाहिशों के बाहर
तो कोई भी नहीं
और मैं
इस्म-ओ-जिस्म के अलावा
हूँ भी तो क्या
उम्र एक सिलसिला है
कि जैसे ग़म तुम्हारा
ख़त्म हो कर भी नहीं होता ...