Last modified on 24 मई 2020, at 22:26

पलायन / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:26, 24 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पूनम भार्गव 'ज़ाकिर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक दिन
पढ़ी मैंने
श्मशान पर एक कविता
और वशीभूत हो गई

उतार दिए उसी वक़्त
चेहरे से मुखौटे
ताकि दिख सकूँ
वैरागी

पर
कंधों पर लटके मुखौटे
जिन्हें मैंने उतारा तो था
फेंका नहीं था
पीछे होने के बावजूद
मेरी आँखों में
उस नई पहचान की
लोलुपता को भांप कर
डर गए
मैं!
एक बार फिर
जलती चिताओं की
भस्म हटा

वापस लौट आई

कुछ क्षण का ही होता है सम्मोहन
कैसा भी हो

अपने आप से भागना
छुप जाना
सच का सामना करना
इतना आसान नहीं होता!