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कविता-5 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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रोना बेकार है व्‍यर्थ है यह जलती अग्नि ईच्‍छाओं की। सूर्य अपनी विश्रामगाह में जा चुका है। जंगल में धुंधलका है और आकाश मोहक है। उदास आंखों से देखते आहिस्‍ता कदमों से दिन की विदाई के साथ तारे उगे जा रहे हैं।

तुम्‍हारे दोनों हाथों को अपने हाथों में लेते हुए और अपनी भूखी आंखों में तुम्‍हारी आंखेां को कैद करते हुए, ढूंढते और रोते हुए,कि कहां हो तुम, कहां ओ,कहां हो... तुम्‍हारे भीतर छिपी वह अनंत अग्नि कहां है...

जैसे गहन संध्‍याकाश को आकेला तारा अपने अनंत रहस्‍येां के साथ स्‍वर्ग का प्रकाश, तुम्‍हारी आंखेां में कांप रहा है,जिसके अंतर में गहराते रहस्‍यों के बीच वहां एक आत्‍मस्‍तंभ चमक रहा है।

अवाक एकटक यह सब देखता हूं मैं अपने भरे हृदय के साथ अनंत गहराई में छलांग लगा देता हूं, अपना सर्वस्‍व खोता हुआ।

अंग्रेजी से अनुवाद - कुमार मुकुल