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भ्रमित विहग सा भटक रहा मन / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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भ्रमित विहग सा भटक रहा मन
गली-गली हर गांव
भरी दुपहरी जली ज़िन्दगी
ढूँढ़ न पाई छांव

आयासों से भी ऊँचे हैं
मंज़िल के आयाम
पँहुच न पाए चलते चलते
लगी बोलने शाम

ठगे गए संकल्प अधूरे
थके हुए हैं पांव

विश्वासों की तहें टटोलीं
लगा नहीं कुछ हाथ
कभी नहीं कोई दे पाया
दो पल का भी साथ

द्वार सभी हैं बन्द कहीं भी
मिलता ठौर न ठांव

कविताएँ लिख-लिखकर काटीं
दिन यों हुआ व्यतीत
उकताहट से भरा हुआ मन
रचें कहाँ से गीत

राग हुए बेसुरे और सुर
हुए ’कुहू’ से ’कांव’