Last modified on 13 सितम्बर 2008, at 23:25

सिर्फ़ इन्सान / नोमान शौक़

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:25, 13 सितम्बर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

फैल रहा है
विषाक्त रक्त
समाज की कटी-फटी धमनियों में
सरहद पर खिंची रेखाओं में
दौड़ रहा है निर्विघ्न
विद्युत प्रवाह की तरह
जिससे बल्ब जलाए जा सकते हैं
न्यूयॉर्क या बोस्टन में
जिससे जगमगा सकता है
फ्लोरिडा का साहिल
जिससे आग लगाई जा सकती है
कहीं भी, कभी भी
धर्म, आस्था या आदर्श के
छोटे से छोटे फ़लीते में
और बड़े से बड़ा विस्फोट
किया जा सकता है
सिर्फ़ एक पल में

फिर भी
ख़त्म हो जायेगा सबकुछ
एक धमाके में
कहा नहीं जा सकता
विश्वास के साथ

हाँ !
अपनी क्षीण होती
प्रतिरोधक क्षमता के कारण
ख़त्म हो जाएंगे
कवि, लेखक और बुध्दिजीवी
अपने ठंडे होते ख़ून की दुहाई देने के लिए
छोड़ जाएंगे दो-एक कविताएँ,
कुछ लेख और चंद ऊँचे विचार
छटपटाते हुए।

बड़े से बड़े विस्फोट के बावजूद
बिल्कुल विलुप्त नहीं होंगे धरती से
अनाकोंडा, भेड़िये और घड़ियाल
हर-भरे रहेंगे कैक्टस और बबूल
जीवित रहेंगे जार्ज बुश
आतंकवाद और तालिबान।

ख़तरे में है
सिर्फ़ और सिर्फ़ इन्सान !