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चार कंधे / एस. मनोज

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दो जून की रोटी और
इज्जत की जिंदगी के लिए
शहरों की खाक छानता
महीने दर महीने
इस गली से उस गली भटकता
मारा मारा फिरता
निम्न और निम्न मध्यमवर्ग
जीवन के बीज बो रहा था
कि कोरोना काल ने आकर घेरा
और दिखा सत्ता का स्याह चेहरा
उत्पीड़ित मानव जिन झोपड़ियों में
बो रहा था प्रेम की पराकाष्ठा के बीज
उसमें उग आए समस्याओं के शूल
बहने लगा दर्द का दरिया
होने लगी बेबसी की हदें पार
लॉकडाउन ने रोटियाँ छीनी
और अछूत कोरोना आने लगा छूने
कोरोना के ठहराव और
फैलाव का केंद्र बना
झुग्गी का एक चापाकल
और दो सामूहिक शौचालय
जब जीवन मौत से ज्यादा
भयावह लगने लगा
फिर निकल चलें उस कालकोठरी से
अपनी जन्म भूमि
नहीं-नहीं मरण भूमि की ओर
जहाँ चार रोटी मिले ना मिले
चार कंधे अवश्य मिल जाएँगे।