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गुडहल / मंगलेश डबराल

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मुझे ऐसे फूल अच्छे लगते हैं
जो दिन-रात खिले हुए न रहें
शाम होने पर थक जाएँ और उनींदे होने लगें
रात में अपने को समेट लें सोने चले जाएँ
आखिर दिन-रात मुस्कुराते रहना कोई अच्छी बात नहीं

गुडहल ऐसा ही फूल है
रात में वह बदल जाता है गायब हो जाता है
तुम देख नहीं सकते कि दिन में वह फूल था
अगले दिन सूरज आने के साथ वह फिर से पंख फैलाने
चमकने रंग बिखेरने लगता है
और जब हवा चलती है तो इस तरह दिखता है
जैसे बाकी सारे फूल उसके इर्दगिर्द नृत्य कर रहे हों

सूरजमुखी भी कुछ इसी तरह है
लेकिन मेरे जैसे मनुष्य के लिए वह कुछ ज्यादा ही बड़ा है
और उसकी एक यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती
कि सूरज जिस तरफ भी जाता है
वह उधर ही अपना मुँह घुमाता हुआ दिखता है।

(एक बिलकुल रफ़ कविता)