मैं चंद घड़ी देखती हूँ
किसी दूर खड़े दरख़्त को
मुझे नहीं दिखता कोई रंग हरा,
या कत्थई,
पत्तियों के बीच से, तने के भीतर से
उभर आता है फिर-फिर वही चेहरा
सितारों-सी चमकती आँखें
चंचल-सी मुस्कान
दिमाग़ का ख़ाली होना
क्या इस क़दर भी वेदनीय हो सकता है?
कि मैं चंद लम्हे भी फ़ुरसत के बिताती हूँ तो
दिखने लगती है एक देह, फंदे से झूलती
मैं हँसती हूँ, हँसाती हूँ
पलटकर बातें भी बनाती हूँ
लिप्त हो बाल-क्रीड़ा में
टीस को ठेंगा भी दिखाती हूँ
ज्यों ही पसरती हूँ थककर सुस्ताने को
मन ले आता है वही ख़याल सताने को
वह कौन था मेरा? मस्तिष्क दुत्कार कर पूछता है,
सुनो! बड़ा ही बेतुका-सा सवाल है
जिसके लिए कहीं कोई जवाब न सूझता है।
जोड़ लेना किसी के सपनों से अपने सपनों को
किसे ऐसे रिश्तों का नाम बुझता है।
मर जाना किसी हमउम्र का वक़्त से पहले
डूब जाना किसी नाव का उस तल में, जहाँ बालक भी रह ले
कट जाना किसी फलदार वृक्ष का, औचित्य के बिना
कैसे संभव है कानों में गूँजती चीख़ों को कोई कर दे अनसुना?
अब तक जीवन में भोगे हैं जितने भी भाव
सब फ़ीके हैं,
घुलनशील लगी सबकी वेदना
जब समझा है आज "आश्चर्य" को
मैं चंद घड़ी देखती हूँ
किसी दूर खड़े दरख़्त को...!