एक वेदी वह थी
जिसकी अग्नि के गिर्द
लेकर फेरे
मैंने सौंप दिया था तुम्हें
अपना जीवन
एक वेदी यह है
जिसकी अग्नि में
जलता रहा जीवन
दोनों ही यज्ञों में
समिध बनी
मेरी ही आकांक्षाएँ
मंत्रोच्चार
मेरी संवेदनाएँ
आहुति बने
मेरे ही सपने
होम हुई मैं
पूरी की पूरी
काश तुम तक पहुँच पाती
इनमें से किसी आँच की
जरा-सी तपिश
इनसे उठे धुएँ की
एक क्षीण-सी लकीर
ये यज्ञ पूर्ण हो गए होते।