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जनता / कौशल किशोर

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जनता
मेरे शहर की
सबसे ऊँची दीवार की तरह है
जिसकी सपाट पीठ पर
हरेक चुनाव से पहले
लिख दी जाती हंै रंगीन बातें
उसकी आंखों के रुपहले परदे पर
हसीन सपने

और चुनाव के बाद
गुम हो जाता है सब
न जाने किस तहखाने में
जनता के हाथ
कुछ नहीं आता
हाँ, आता है अगले चुनाव तक
इन्तजार,
बस, इन्तजार!