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निर्गम यही / राम सेंगर

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जो उम्मीद-भरे होते हैं
बदलें वे तारीख़ ।

करे न कोई
भले हमारे
अनुरोधों पर ग़ौर ।
बात उठाएँ
जैसा भी हो
अज़ब नकचढ़ा दौर ।
फैले-बिखरे सन्तुलनों को
करते जाएँ ठीक ।

अनभिव्यक्ति की शक्ति
और विश्वास
निकालें राह ।
लक्ष्य रहे तो
थिर हो जाती
अपने आप निग़ाह ।
रचना-उत्सव की पड़ जाती
धूम दूर से दीख ।

दिन डूबेगा
तब डूबेगा
छकड़ा कहो कि बैल ।
सहज लगे
चलने वाले को
अपनी दुर्गम गैल ।
निर्गम यही, इसी दम टूटे
घिसी-पिटी हर लीक ।

जो उम्मीद-भरे होते हैं
बदलें वे तारीख़ ।