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प्रपात / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

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फूट चला फिर से मेरे काव्य का प्रपात
रोक नहीं सके उसे पर्वतों के हाथ
मन मेन फिर उठने लगे नए-नए ख्वाब
दिवा सपनों के साथ

बादल फिर भर लाए मोतियों के हार
बहती नदी का फिर करने शृंगार
कलम ने भरे मधुर चित्रों में रंग
महकने लगा प्यार का पारिजात
याद आने लगे बिसरे हुए गीत

आंदोलित होगए वीणा के तार
जगत में होगया आनंद का विस्तर