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तमाशा / सुनील श्रीवास्तव

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हम भी ठहाके ही लगाते रहते
देखते रहते तमाशा
मनबहलाव करते
या कुनमुनाते थोड़ा बहुत
जैसे कुनमुनाते हैं उमस भरी रातों में
मच्छरों से काटे जाने पर
या जेठ की दुपहरी में सायकिल
बीच रस्ते पंक्चर हो जाने पर
या सुबह की लोकल ट्रेन में
किसी भारी जूते से
पाँव कुचल जाने पर

हम निर्विकार भी देख लेते तमाशा
कि तमाशे में शामिल हो गए गिद्ध
झुण्ड के झुण्ड मण्डराने लगे आकाश में
झपट्टा मारने लगे
हमारी रोटी
हमारे बदन के मांस पर

ख़ुद को बचाते किसी तरह
बचाते अपने बच्चों को
हम इन्तज़ार करने लगे

तमाशे के ख़त्म होने का
और सदियाँ गुज़र गईं

हमने जब भी उठाई लाठी
ख़ुद ही मारे गए
हमने जब भी लिखी कविता
अपराधी ठहराए गए

फिर भी बचाए रखे अपनी मुट्ठियों में
हमने कुछ बीज फूलों के
उन्हीं के सहारे लड़ी
अपनी लड़ाई

पीठ पेट सहलाते हुए भी हम
जुटा ही लाए बच्चों के लिए
एकाध टॉफियाँ
दिनभर कोड़े खाकर भी रात
ढूँढ़ ही लिया
पत्नियों-प्रेमिकाओं की सूरतों में
चान्द का पानी

बस, यहीं हारे वे
उनकी घृणा की आन्धियों में
उजड़ते-उखड़ते हुए भी

हमने दो सांसें ले ही लीं
प्रेम की

साथियो !
भूलना मत इतिहास यह
मैं अपराधी ठहराए जाने का खतरा
उठाते हुए कह रहा हूँ ।