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मुहब्बत / कृष्णा वर्मा

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मुहब्बत
डाल लिये हैं मैंनें
तेरे नाम के पूरने
गाचनी लगी
दिल की कोरी तख़्ती पर
प्रीत का पानी मिलाकर
मथ लिया है
स्याही की टिकिया को
प्रेम गीतों की धुन संग
पीपल की छाँव में बैठ
मुहब्बत की क़लम से
पुख़्ता करने को हर्फ़
उन पर
रोज़ फेरती हूँ उन पर स्याही
दिनों-दिन गहराते जा रहे हैं
तेरे नाम के हिज्जे
ख़्याल रहे
फीका न होने पाए कभी
तेरी बेवफ़ाई से
इनका रंग
देखो, शिद्दत से निभाना
लगी को
छलकी जो कभी मेरी आँख
तो रह जाएगी नम
मेरी क़ब्र की मिट्टी
कैसे सो सकूँगी गहरी नींद
फिर सदियों तक
पुरसुकून ज़मीं के नीचे।