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चुप्पियाँ / रवीन्द्र भारती

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आस्तीनें गीली हो रही थीं, भीग रही थीं तारीख़ें
शब्दों के मर्म के पास था मैं —
जहाँ चुप्पियाँ बैठी थीं अपना कितना कुछ लेकर ।
यही चुप्पियाँ
पिता के अन्तिम दिनों में उनके साथ थीं
और यही, बुद्ध जब कपिलवस्तु छोड़ रहे थे —
उनके होठों पर थीं ।

चुप्पियों को वर्षों बाद देखा कि
आँखें डबडबा आईं
बहुत कुछ सोचकर उनसे नहीं पूछा कि
अपने अन्तिम समय में —
क्या सोचते थे पिता, बुद्ध।
अकेला नहीं बादलों से निर्वासित जल के साथ था मैं
आस्तीनें गीली हो रही थीं, भींग रही थीं तारीख़ें ।