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गुनिया / रवीन्द्र भारती

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पथों में जिन चरणों के पीछे
दीवानगी में गए चरण शताब्दियों पूर्व
उनमें से कुछ की कथा थी उसके पास
उनकी राग-रागनियों में उसकी सिसकियाँ थीं —
जिन्हें वह घूम-घूमकर
नए-पुराने पथों में सुनाता रहता था ।

वह सोरठी गाता था और हेरता रहता था
उसका हेराया हुआ धीरज लोगों की आंखों में ।
एक दिन मुझे मिला जब वह समूह में था
ताँत की धुन के साथ अपने को उड़ेल रहा था धीरे-धीरे ।
मैंने चुल्लू बाँध ली और झुक गया
धीरे-धीरे दरिया के रंग का हो गया
आसमान के रंग का हो गया धीरे-धीरे ....।