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वक़्त पुकारे / महेंद्र नेह

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सुनो साथियो !
वक़्त पुकारे
हम सब अपने घर से निकलें

हरदम निजी स्वार्थ की बातें
तिकड़मबाज़ी छुपकर घातें
भ्रम के दिन और भ्रम की रातें

                तोड़ें कारा सुविधाओं की
                कड़ी धूप में आओ सिक लें ।

ऐसा जीना भी क्या जीना
घुट-घुट रहना, आंसू पीना,
डर ने अमन-चैन सब छीना

                आज़ादी की नई इबारत
                फिर से अपने दिल पर लिख लें ।

ये कैसी बाज़ारू बस्ती
डूब रही है सबकी कश्ती
महँगी मौत, ज़िन्दगी सस्ती

                लूटपाट की दुनिया बदलें
                फिर इनसानों जैसा दिख लें ।