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राग यमन / अरुणाभ सौरभ

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रात के पेट में
धँस चुकी चान्दनी
ठिठुर रही हवाएँ
गली के नुक्कड़ पर
बेआवाज़ गाता पेड़
आरोह-अवरोह के साथ
किनारे की रेत पर
संगत करती फेनिल लहरें

आलाप में सनन-सनन
दूर कहीं अनजान झोपड़ी से
कनखी मारता चान्द

रात के अन्धेरे से लड़कर रोटियाँ सेंकतीं
गाँव की सबसे बूढ़ी अम्मा
अन्धेरे से लड़ने का दावा करता कवि
फूलती साँसों के बीच हारमोनियम पर
भास मिलाता कोई गायक-कलाकार
राग यमन तो रात की ख़ूबसूरती है

एक एकान्त कोना
कोई मौन संगीत
एक पहचानी सी छुवन
एक धड़कती सी आहट
भीतर-भीतर बज रहा हो
स्थायी-अन्तरे के साथ
हरेक अन्तस में
अलग-अलग जैसे कि राग यमन

ये राग यमन है
ना कि रात का विरानापन
ये इस गली का आख़िरी मकान है
ना कि कोई भीड़-भीड़ चौराहे का
ये प्यार की सिफ़ारिश है
ना कि कोई चालाकी

गाँधीजी की आत्मा रागों में बसती थी
नरसी मेहता की भी
चरखा तो ताल मिलाने का बहाना था
जो चलता नहीं बजता था थाट के मुताबिक़
सूत काटकर कपड़े बुनना जो जानता हो
वही जान समझा सकता है
रात के समय गाए जाने वाले राग की अहमियत ....